सृष्टि सृजक स्त्री,जो माँ,बहन,अर्धांगिनी और न जाने कितने सम्बोधनों से होकर मातृत्व,ममता,स्नेह,निश्छलता और लालत्व के उच्च आदर्शों को स्थापित करते हुए एक सम्पूर्णता का बोध कराती है। किसी ने सत्य ही कहा है कि स्त्री की उन्नति या अवनति पर ही राष्ट्र का उत्थान निर्भर करता है। स्त्रियां तो उस पलाश के पौधों की तरह होती हैं जो सिर्फ अपनी डाल पर लगता है और उसी पर मुरझाकर धरती पर गिर जाता है अर्थात उसका पूर्ण समर्पण उस डाल के प्रति है जिसने उसको जीवन और स्नेह दिया ।
उच्च नैतिक आदर्शों की ढपोरशंखी बजाते इस पुरुषवादी समाज में क्या महिलाओ को वो सम्मानित स्थान मयस्सर हुआ,जिसको वो हकदार थी ?
इतिहास के पन्नो को उकेरे तो ईसा से ५०० साल पूर्व ,पाणिनि द्वारा पता चला है, नारी वेद अध्ययन भी करती थी तथा स्तोत्रों की रचना करती थी ;जो ’ब्रह्म वादिनी’ कही जाती थी।इनमें लोपामुद्रा,अपाला, घोषा, इन्द्राणी नाम प्रसिद्ध हैं।’पंतजलि’ में तो नारी के लिए ’शाक्तिकी’ शब्द का प्रयोग किया गया है; अर्थात ’भाला धारण करने वाली’।इससे प्रतीत होता है, कि नारियाँ सैन्य शिक्षाएँ भी लिया करती थी और पुरुषों की भांति अपनी जिम्मेदारी को बखूबी निभाती थी। चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में इस प्रकार की प्रशिक्षित महिलाओं की एक सुरक्षा टुकड़ी का उल्लेख किया गया है । इसी दौर में बाल विवाह और सती प्रथा के आगमन ने नारी के जीवन को नारकीय बना डाला। बहरहाल प्राचीन काल में वैदिक से मध्य काल के प्रारब्ध तक उत्तरोत्तर स्त्रियों की दशा में गिरावट आती रही।
मध्यकाल के मुहाने से मुगलों के पतन तक के दौर में राजनीतिक उठापठक के मध्य कुछेक अपवादों को छोड़ स्त्रियों की दशा में गिरावट आती गयी। यह दौर सती प्रथा का स्वर्णिम काल था। इसी दौर में स्त्रियों के अगाध पण्डिता होने के दृष्टांत के स्वर्णिम उल्लेख हैं। रजिया ने सुल्तानियत की उस पुरुषवादी परम्परा को खंडित किया जो बेटियों के बदले बेटों की योग्यता का दम्भ भरती थी। इस दौर में स्त्री के दिव्य गुण धीरे-धीरे उसके अवगुण बनने लगे, साम्राज्ञी से वह धीरे-धीरे आश्रिता बन गयी। जो स्त्रियां वैदिक युग में धर्म और समाज का प्राण थीं, उन्हें श्रुति का पाठ करने के अयोग्य घोषित किया गया।मुसलमानों में पर्दा प्रथा होने के कारण तथा मर्द के बगैर घर से बाहर न निकलने की जबरन प्रथा ने भारतीय समाज से मुस्लिम नारी की शिक्षा लगभग समाप्त हो गई थी।ईसाईओ में ज्ञान प्राप्ति को लेकर कोई भेदभाव नहीं था।उस जमाने में उच्च शिक्षा पाने के लिए स्त्रियों को ’नन’(भिक्षुणी) का जीवन व्यतीत करना होता था,जबकि पुरुषों के लिए कोई शर्त नहीं होता था।
आधुनिक भारतीय इतिहास में जब-जब राष्ट्र की अखंडता और गरिमा को ब्रिटिशों ने बूटों के तले कुचलने का दुस्साहस किया तो इन्ही महिलाओ में अरुणा आसफ अली,सरोजनी नायडू,एनी बेसेंट ने अपने बुलंद इरादों और मजबूत हौसलों से बारम्बार मात देने का साहस दिखाया।
२१वी सदी की परिस्थितियां व्यवहार में कुछ बदली हुयी सी जरूर प्रतीत होती है,लेकिन मृग-मरीचिका की भाँति। जो व्यवहार में दूर से ही सुधार का झूंठा आवरण दिखाती है। शहरी महिलाओं के इतर ग्रामीण दशा में मीलों का विभेद है। घरों की चहारदीवारी से निकल आज इन्ही महिलाओं में कल्पना चावला,सुनीता विलियम्स,संतोष यादव,प्रतिभा पाटिल इत्यादि ने आने वाली नस्लों के लिए नयी इबारत लिख दी तो दूसरी तरफ भ्रूण हत्या,दहेज़ हत्या,बलात्कार इत्यादि की शिकार हुयी मासूमों को पुरुषवादी समाज ने सरकारी योजनाओं में 'दामिनी' नाम से उपकृत कर दिया।छद्म सशक्तिकरण के बहाने दरसअल आज भी महिलाएं लाचार और बेचारी ही बनी हुई हैं।
मुहम्मद अली जिन्ना की उक्तियाँ आज के पुरुषवादी समाज को आईना दिखने हेतु उपयुक्त नजीर है कि,"कोई भी मुल्क यश के शिखर पर तब तक नहीं पहुँच सकता,जब तक उसकी महिलाएं कंधे से कंधा मिलाकर न चलें"।
बहरहाल सरसरी तौर पर गौर करें तो आज देश की दशा और दिशा निर्धारण में आज महिलाएं पुरुषों की समकक्षी अवश्य बनी हुई हैं,लेकिन आनुपातिक दृष्टि से उनका औसत शायद बहुत अल्प है। ऐसे में महिलाओं की दशा में सुधारार्थ "महिला आरक्षण" वास्तव में एक नजीर साबित होगा। आरक्षण की बानगी देखे तो ७३रवे संविधान संशोधन से पंचायतों में महिलाओं को प्रधान/प्रमुख/अध्यक्ष पदों पर मिले एक तिहाई आरक्षण ने उपलों और कंडों के धुएं से निकाल कलम पकड़ने के काबिल अवश्य बनाया है। यद्द्यपि कि इसमें एक विरोधाभास भी है कि अधिकांशयतया स्थानों में महिलाएं नाममात्र की पदाधिकारी हैं जबकि वास्तविक नियंत्रण आज भी पुरुषों की जागीर बना हुआ है। मुख्य प्रश्न यह है कि क्या योजनाओ और पंचायत आरक्षण के बावजूद भी महिलाओं की दशा में सुधार आया? क्या महिला सशक्तिकरण की बातें बस एक कोरी बकवास बनकर रह गयी है ? क्या ग्रामीण महिलाओं की दशा में सुधार आया है? क्या पुरुषवादी समाज में महिलाओं को बराबरी का दर्जा प्राप्त हुआ है? क्या दलित और आदिवासी महिलाओ के रहन सहन में अंतर आया है ? क्या अल्पसंख्यक महिलाओं को धार्मिक ढकोसलों और कुरीतियों के इतर सामाजिक साम्यता प्राप्त हुयी है ?
प्रश्न तो बहुत से हैं लेकिन आज भी उत्तरविहीन है।
लोकतान्त्रिक राष्ट्र का उत्तरदाईत्व है कि वह स्त्री-पुरुष,सवर्ण-दलित-अल्पसंख्यक के विभेद से मुक्त सबको एकसमान सुविधाएं मुहैया कराये। भारत में सर्वाधिक दुर्दशापूर्ण जीवन दलित महिलाओं का है। इनके शोषण की कहानी सदियों से बिना रुके अनवरत जारी है। शिक्षा के अभाव में ये महिलाएं समाज की मुख्य धारा से मीलों दूर जा चुकी हैं। अशिक्षित होने के चलते इस तबके में महिलाओं को कम उम्र में ही विवाह और माँ बनकर पारिवारिक जिम्मेदारी का निर्वहन करना पड़ता है। आर्थिक तंगी ने दलित लड़कियों को कम उम्र में रोजगार हेतु मेहनत-मजदूरी करके गुजर बसर करने पर बाध्य किया है,जिससे शिक्षा अवरुद्ध होती है। अशिक्षा के कारण बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं से महरूम ये महिलाये नारकीय जीवन-यापन करती हैं। कर्मठता के चलते किसी भी आंदोलन में इनकी भागीदारी तो होती है लेकिन नेतृत्व की बागडोर कभी नही मिलती। दलितों में संपन्न तबके की महिलाओं द्वारा भी इन्हे हमेशा हेय दृष्टि से देखा जाता है।
बात अगर आदिवासी तबके की महिलाओं की हो तो भारत, विश्व की सबसे अधिक जनजातीय महिलाओं वाला देश है। भारत में लगभग साढे़ पांच सौ जनजातियां हैं। जब हम सशक्तिकरण की बात करते हैं तो इसमें विचारकों,शासन एवं वृहत्तर समाज की भागीदारी होती है।जिन महिलाओं में आज हम सशक्तिकरण देख रहे हैं वो अधिकतर शहरी, साक्षर, मध्यमवर्गीय हैं,परन्तु लगभग ८० प्रतिशत महिलाएं ग्रामीण क्षेत्रों में रहती हैं। आदिवासी क्षेत्रों में महिलाओं के लिए रोजगार प्राप्ति के साधन उपलब्ध नही,शायद इसीलिए थोड़ी बहुत शिक्षित महिलाये कुछ पैसों के लिए मजदूरी पर निर्भर हैं। आदिवासी महिलाओं को आम महिलाओं की तरह शिक्षित करना आवश्यक है। मगर पलायन और अन्य वजहों से बहुत सारी महिलाएं शिक्षित नहीं हो पाती हैं।कम पढ़े-लिखे होने के बावजूद आदिवासियों में लड़कियों को लेकर ग्लानि करने की परंपरा नहीं है।आदिवासियों में भ्रूण हत्या का चलन नहीं के बराबर देखा गया है। मध्य प्रदेश के झाबुआ में भीलों में होली के त्यौहार में रंगो के माध्यम से लड़कियों को वर चुनने की आजादी की बात हो या गोंड गधेडू में बांस के छोर पर गुड-चना बाध वर चुनने की आजादी निस्संदेह लड़कियों की महत्ता दर्शाती है लेकिन दूसरी तरफ पातालकोट,होशंगाबाद में आदिवासियों को आजादी के ६७ साल बाद बुनियादी सुविधाएं से महरूम होकर समाज की मुख्य धारा से कटे हैं। आदिवासी महिलाओं में सुधार हेतु प्रशिक्षण,लघुकुटीर उद्योग,हस्तशिल्प के साथ ही बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएँ उपलबध करना आवश्यक है।
मुस्लिम महिलाओं के सन्दर्भ में,वास्तव में इस समाज की महिलाओं को अन्य समुदायों के साथ-साथ स्वधर्मीं पुरुषों द्वारा भी भेदभाव झेलना पड़ता है। इस तरह वो दोहरे भेदभाव की शिकार हैं। मुस्लिम समाज में महिलाओं को निचले दर्जे पर रखने के साथ उन्हें अधिकार भी कम दिए गए हैं। राजेंद्र सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक मुस्लिम महिलाओं की दशा,दलित महिलाओं से भी बदतर है।
२१वी सदी के प्रारब्ध में जब भारत स्वयं को एक महाशक्ति के रूप में विश्वपटल पर स्थापित करने हेतु प्रयासरत है,वैसे में महिलाओं का उचित प्रतिनिधित्व ही इस सपने को साकार कर सकता है। नेतृत्वकर्ता की भूमिका की बागडोर महिलाओं के हाथ में देने से निस्संदेह चंडीगढ़ और हरियाणा का लिंगानुपात (८१८,८७७),केरल और पुदुचेरी (१०८४,१०३६) का अनुसरण करता दिखाई देगा और साक्षरता की दृष्टि से भी पुरुष साक्षरता(८०.९%) के समतुल्य महिला साक्षरता(६४.६%) होगी।
बिगहैम यंग की कथनी इस लेख की सार्थकता का सार होगी कि,"यदि आप एक आदमी को शिक्षित करते हैं तो आप मात्र उसी एक आदमी को शिक्षित करते है,लेकिन यदि आप एक औरत को शिक्षित करते है तो आप एक पीढ़ी को शिक्षित करते हैं"।
थॉम्सन रॉयटर्स फ़ाउंडेशन के सर्वेक्षण में शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार और हिंसा जैसे कई विषयों पर महिलाओं की स्थिति की तुलना ली गई। १९ विकसित और उभरते हुए देशों में भारत की स्थिति को सउदी अरब जैसे देश से भी बुरी बताया गया है जहाँ महिलाओं को गाड़ी चलाने और मत डालने जैसे बुनियादी अधिकार हासिल नहीं हैं। भारत के 19 देशों की सूची में सबसे अंतिम पायदान पर रहने के लिए कम उम्र में विवाह, दहेज, घरेलू हिंसा और कण्या भ्रूण हत्या जैसे कारणों को गिनाया गया है।
महिला सशक्तिकरण की दिशा में 2010 में पारित हुए महिला आरक्षण विधेयक के प्रभावी होने से क्रांतिकारी परिणाम आने की उम्मीद थी। लेकिन दुर्भाग्य,यह महत्वपूर्ण बिल ने लोकसभा और राज्यसभा की दहलीज पर दम तोड़ दिया।इस बिल के तहत संसद और राज्य विधान सभाओं में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने का प्रस्ताव था। विश्व के अन्य देशों में महिलाओं को आरक्षण प्राप्त है। स्वीडन में ४०%,नॉर्वे में ३८%,फ़िनलैंड और डेनमार्क में ३४-३४%,अर्जेंटीना में ३०% और आइसलैंड में २५% स्थान महिलाओं हेतु आरक्षित हैं। यहाँ तक की हमसे कम समृद्ध इरिट्रिया,तंजानिया,बांग्लादेश और उगांडा ने भी महिलाओ को उनके अधिकार दिए हैं।
राजनीतिक महत्वाकांक्षा और पुरुषवादी सोच की भेंट चढ़े महिला आरक्षण बिल के प्रभाव में आने से शायद महिलाओं की काबिलियत का लोहा सबको मानना होता। जेम्स थरबेर की उक्ति कि,"महिलाएं पुरुषों से ज्यादा बुद्धिमान होती हैं क्योंकि वो जानती काम है और समझती ज्यादा हैं" इस पुरुषवादी सोच के गाल पर तमाचा होती जबकि यह बिल संसद की सीढ़ियों से कूड़े के ढेर की तरफ न फेंक उसे इज्जत और सम्मान से स्वीकार्य किया गया होता।
【चंचल】™