Sunday, September 4, 2016

भारत बनाम इंडिया ।

शिक्षा वह पूँजी है,जो किसी भी राष्ट्र का भविष्य तैयार करती है । खासकर भारत जैसे अतिजनसंख्य राष्ट्र में विकास की इबारत लिखने के लिए शिक्षा ही एक मात्र विकल्प है । लेकिन ये सभी बाते सिर्फ कहने और सुनने में ही अच्छी लगती हैं क्योंकि महाशक्ति बनने का छद्म दंभ भरता भारत दरअसल अनचाहे ही सही दो राष्ट्रों में विभक्त है । एक है 'भारत' और एक है 'इंडिया' । जहाँ असमानता की चौड़ी खाई स्पष्ट नजर आती है । एक तरफ तो संसाधनविहीन गरीब और पिछड़ा तबका है जो शिक्षा के लिए संघर्ष कर रहा है क्योंकि गरीबी,भुखमरी और लाचारी उसको विद्यालय की चौखट पर जाने से रोक रही है । दूसरी तरफ सदियों से संपन्न पूंजीपतियों और उच्च जातियों के संपन्न घरानों के नौनिहाल है जो शिक्षा के हरेक माध्यम को बिना किसी संघर्ष के सुलभता से पा रहे हैं ।दृश्य बिहार के छोटे से गाँव का है जहाँ कक्षा दो में पढने वाला लिली नाम का मासूम,जो शिक्षा प्राप्ति हेतु अपनी पारिवारिक गरीबी के मध्य जूझकर भी चेहरे पर मुस्कान बिखेर रहा है । इस कठिन दौर में भी वह अपनी कर्मठता से विद्यालय के शिक्षकों का लाडला है ।पीठ पर लदी बीज के बोरी से निर्मित बस्ते में ही वह अपने भविष्य के सपनों को बुन रहा है । यही विभेद है भारत जैसे राष्ट्र का जहाँ एक लिली को शिक्षा प्राप्ति हेतु संघर्ष करना पड रहा है और कान्वेंट की दौड़ में स्वयं को अन्य धन्नासेठों के पुत्रों के समक्ष हीन भावना से ग्रसित पाता है । दरअसल यही है भारत और इंडिया का द्वन्द । जीडीपी के प्रतिशत रूप में भारत मात्र ३ प्रतिशत के अल्प खर्च से राष्ट्र को विश्वगुरु बनाने का ख्वाब पाले है,जबकि अन्तराष्ट्रीय मानक भी ५ प्रतिशत की अपेक्षा रखता है । दुनिया के टॉप २५ राष्ट्रों का शैक्षणिक जीडीपी प्रतिशत भी न्यूनतम ७ प्रतिशत का है,लेकिन जिओ की दौड़ में दौड़ते राष्ट्र को इस बात की अवश्य चिंता है कि कैसे प्रति व्यक्ति के हाथों में भुखमरी,लाचारी,बेरोजगारी और अशिक्षा के मध्य मुफ्त मोबाइल पकडाया जाय । शिक्षा के अधिकार की जगह देश में सबके हाथ मोबाइल,बेरोजगारी और लाचारी पकडाने कि यह कवायद देश के सुनहरे भविष्य के साथ एक खिलवाड़ ही तो है  सालाना पांच करोड़ के रोजगार के वादे,पांच साल में सबके लिए पक्के मकान,पंद्रह लाख के वादे के मध्य प्रधानमन्त्री जी का किसी पूंजीपति के विज्ञापन का मुख्य चेहरा बनना भारत को किस विकास की राह पर ले जा रहा है । इन सब वादों के मध्य जीडीपी में शिक्षा का प्रतिशत घटाकर,सालाना केंद्रीय सेवाओं में नौकरियों की संख्या में कटौती करके क्या हम एक समृद्ध भारत के निर्माण की दिशा में बढ़ रहे हैं ? लिली जैसे बच्चे संघर्ष की आंच में तपकर भी अपने चेहरे पर मुस्कान रखने का माद्दा रखते है,तो क्या हमारी कोई जिम्मेदारी नही बनती कि इन होनहारों को उनकी असली जगह पहुँचाया जाय । ऐसे मुद्दों पर राष्ट्र्चेतक बना मीडिया क्यों मौन है ? क्या छद्म राष्ट्रवाद की ढपोरशंखी यही है ?
प्रश्न यह नही कि दोष किसका है ? बल्कि प्रश्न यह है कि इस भुखमरी,लाचारी,बेरोजगारी और अशिक्षा के दलदल से भारत कब आजाद होगा ? कब तक समाज के शोषित तबके के हक़ और अधिकारों को छीनकर किसी अम्बानी और अदानी की झोली भरी जायेगी ? कब तक देश की आधी से अधिक आबादी खुली आसमानी छत के सहारे अपना जीवनयापन करती रहेगी ? आजादी के ७० वर्षों की समीक्षा में यदि आप सोचेंगे कि हमने क्या खोया,क्या पाया तो विश्वास

मानिए इस देश की तीन चौथाई आबादी में लिली जैसे मासूमो दिखेंगे,लेकिन सत्ता सदैव २ से ३ प्रतिशत अम्बानी और अदानी कि ख़ुशी के लिए इनके सपनों का गला घोटेगी 




बाकी जो है सो हइये है।






【चंचल】

Saturday, September 3, 2016

चौकीदार या फिर पूंजीपतियों का मददगार...

विदर्भ में किसान आत्महत्या कर रहे हैं।हरियाणा के मेवात में मामा-मामी के समक्ष दो भांजियों के साथ बलात्कार के पश्चात नृशंस हत्या का नंगा-नाच हो रहा है। नेशनल क्राइम ब्यूरो के आंकड़े मध्यप्रदेश को बलात्कार-प्रदेश की संज्ञा से नवाज रहे हैं।गुजरात में दलित उत्पीड़न का नया इतिहास रचा जा रहा है,जिसकी बदौलत उस प्रदेश की मुखिया को कुर्सी तक गवानी पडी।देश की सरहदों पर बेगुनाह सिपाही बेमौत मर रहे हैं।ऐसे में स्वघोषित चौकीदार बने परिधानमंत्री जी की संघ प्रचारक से जिओ प्रचारक की सफल यात्रा सचमुच विचित्र है।जिस देश की आधी आबादी भूखे पेट आसमानी छत को आशियाना बनाकर रात गुजारती हो,उस देश का मुखिया एक धन्नासेठ की ऐसी गुलामी करे,सचमुच निंदनीय है।जिन मुट्ठियों में खाने का निवाला और रोजगार होना चाहिए,वहां डिजिटल क्रांति का मोबाइल जैसा भ्रमित जुमला छोड़कर किसके हाथों को मजबूत किया जा रहा है?
देश क्रांति मांग रहा है और होनी भी चाहिए क्रांति,लेकिन डिजिटल क्रांति की जगह अगर भूख,गरीबी,बेबसी और लाचारी के लिए ऐसे विज्ञापन या अभियान होते तो शायद राष्ट्र वास्तविक राष्ट्रवाद की ओर बढ़ता ।अगर क्रांति बिजली,पानी,मकान के ७० वर्षीय असफल संघर्ष के साथ-साथ सुशासन,क़ानून,न्याय और समानता जैसे मूल्यों पर होती तो शायद नए युग का नया इतिहास हम लिखने में सफल हो पाते । क्रान्ति यदि माँ-बहनों की अस्मिता के रक्षार्थ होती तो देश कि आधी आबादी के साथ न्याय होता,लेकिन हमे तो डिजिटल क्रांति चाहिए 
अंततः कहूँगा अब भी वक़्त है,अपनी नीति,नियति,सोच और कार्यों में बदलाव लाइए वरना जिंदा कौमे पांच साल इंतजार नही करती 




बाकी जो है सो हइये है।



【चंचल】

Friday, September 2, 2016

कितना जायज है त्रिस्तरीय आरक्षण ?

हक़ और हुक़ूक़ की लड़ाई तब तक अधूरी है,जब तक कि संसाधनों का सही बटवारा न हो,व्यवस्था की बेहतर समीक्षा न हो। वाकया उत्तर प्रदेश की माटी से है। पीसीएस प्रारंभिक परीक्षा २०१६ के नतीजे आते है और आरक्षण विरोधी धड़ा आरोप लगता है कि उक्त परीक्षा में त्रिस्तरीय आरक्षण लागू किया गया है। आनन-फानन में आयोग के हाथ-पाँव फूल जाते है और तत्काल आयोग के सचिव स्पष्टीकरण हेतु मीडिया के समक्ष प्रस्तुत होते है और त्रिस्तरीय आरक्षण के आरोप को सिरे से खारिज कर देते हैं। सिर्फ ५ से १० लोगों के आरक्षण विरोधी समूह का दबाव इतना अधिक है कि एक संवैधानिक संस्था के आईएएस रैंक के सचिव को सफाई देनी पड़ती है। जबकि दूसरी तरफ विगत ४ वर्षों से संघर्षरत हजारों आरक्षण समर्थकों को बूटों और लाठियों के दम पर कुचला जा रहा है। आखिर क्यों ? 
बहरहाल कौन सही और कौन गलत है यह समझने से पूर्व त्रिस्तरीय आरक्षण शब्द की महिमा को जानना बेहद आवश्यक है। जिस त्रिस्तरीय आरक्षण के जिन्न को बारम्बार देश का अभिजात्य मीडिया और आरक्षण विरोधी जीवित करते हैं,आख़िरकार वो है क्या ?
दरअसल त्रिस्तरीय आरक्षण अभिजात्य और सवर्ण मीडिया द्वारा गढ़ी एक शब्दावली मात्र है,जो आरक्षण की मूल भावना पर चोट करता है। त्रिस्तरीय शब्द का प्रयोग करके अभिजात्य वर्ग वैमनस्य की राजनीति में संलिप्त है। असल में लोकसेवा आयोग,अधीनस्थ आयोग,माध्यमिक आयोग इत्यादि में आरक्षण के नियमों की ही तिलांजलि दी गई है। उक्त आयोगों को किसी भी परीक्षा की प्रक्रिया का निर्धारण और आयोजन का स्वतंत्र अधिकार प्राप्त है,ऐसे में परीक्षा को कितने चरणों में संपन्न कराना है,ये आयोग के स्वविवेक पर निर्भर है। लोकसेवा आयोग की पीसीएस जैसी परीक्षाएं तीन चरणों प्रारंभिक,मुख्य और साक्षात्कार में विभक्त है और इसमें आरक्षण के नाम पर अधिकारों का गलाघोटन होता है। वास्तव में आरक्षण प्रारंभिक स्तर पर मिलना चाहिए,जबकि ऐसा न करके इसको अंतिम स्तर पर साक्षात्कार के दौर में उपलब्ध कराया जाता है और ऐसे में ओबीसी,एससी,एसटी को उनका आरक्षण ही नहीं मिल पाता है। 
आरक्षण शब्द मात्र से २०% सवर्णों की पेशानी पर बल पड़ने लगता है,लेकिन असल आरक्षण का लाभ तो वे ही उठा रहे हैं। मंदिरों,मठों,मीडिया,न्यायपालिका,विश्वविद्यालयों में उच्च से निम्न पदों तक लगभग १००% का एकाधिकार प्राप्त यह २०% जनसँख्या वाला तबका वहां के आरक्षण की समीक्षा से गुरेज करता है। ५००० वर्षों के शोषण की उपज स्वरुप कुछेक पिछड़े और दलित नेताओं का प्रादुर्भाव देश और प्रदेश की राजनीति में हुआ भी,लेकिन सब व्यर्थ साबित हुआ क्योंकि वे भी मनुवाद के सिरहाने बैठने में गर्व महसूस करते हैं। 
बात उत्तर प्रदेश की है,तो यहाँ के ही कुछेक उदाहरण देना ज्यादा बेहतर होगा। त्रिस्तरीय आरक्षण के संघर्ष के दौर में जब समर्थक और और विरोधी अपने-अपने स्तर से लामबंद हुए उनके समर्थन में अनेक नेताओं ने अपने मत दर्ज कराये। उदाहरणस्वरुप आरक्षण विरोधियों के समर्थन में उत्तर प्रदेश की तथाकथित पिछड़ी सरकार के अनेक सवर्ण नेताओं ने बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी दर्ज कराई,जिनमे रेवती रमन सिंह,ओम प्रकाश सिंह,रंजना वाजपेयी इत्यादि थी,जो पिछड़ी और दलित बाहुल्य सीटों से चुन कर अपनी राजनैतिक पारियां खेल रहे हैं। दुखद पहलू तो यह था कि जब आरक्षण विरोधियों को अधिकार दिलाने की लड़ाई लड़ने एक पिछड़ा उपस्थित हो गया। उत्तर प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष और सांसद केशव प्रसाद मौर्या उन महान हस्तियों में है जो आरक्षण प्राप्त तबके से ताल्लुक रखते है,परन्तु राजनीति की गन्दी चालों में खुद को विरोधी साबित कर गौरवान्वित होते हैं। उक्त सवर्ण नेताओं से ज्यादा दोषी तो वे नेता थे जिन्होंने खुद की राजनीति ही पिछड़ा और दलित को छल कर सदैव आबाद की है,इनमे मुलायम,मायावती,अखिलेश तो हैं ही,साथ ही साथ इनकी पार्टी के पिछड़े और दलित नेता भी। इनकी सरकारों के दौर में आरक्षण का हक़ पाने हेतु उत्तर प्रदेश की सड़कों पर लाठियों के दम पर पीटा जाना कितना न्यायसंगत है ?
आरक्षण का जिन्न बारम्बार उठाने वाली सवर्ण और खासकर ब्राह्मण आधिपत्य वाली आरएसएस को बिहार के चुनावों में एक पिछड़े सपूत लालू प्रसाद के हाथों मुंह की खानी पड़ी थी,लेकिन उन्ही के समकक्षीय नेतों मुलायम,नितीश,मायावती,रामबिलास पासवान शायद अपनी जाति और जिल्लत भुला चुके हैं। रामबिलास पासवान के सपूत चिराग के गैरजिम्मेदाराना बयान पासवान के 
राजनीतिक चिराग को न बुझा दे क्योंकि स्वयं सुरक्षित सीटों की मलाई खाने वाले इन बाप-बेटों की आरक्षण छोड़ने की नसीहत भविष्य में भारी पड़ सकती है। 
अंततः यही कहूंगा कि २०% के हक़ के बदले ८०% के अधिकारों का दमन करने वाली इन तथाकथित सरकारों को खुद के गिरेबां में झाकने की जरुरत है,वरना यदि किसी दिन उनके स्वजातियों ने ही उनका साथ छोड़ दिया तो साउथ एवेन्यू और कालिदास मार्ग दूर की कौड़ी हो जाएगी।  




बाकी जो है सो हइये है।


【चंचल】

Thursday, September 1, 2016

कब बराबरी का दर्जा पाएगी आधी आबादी ?

सृष्टि सृजक स्त्री,जो माँ,बहन,अर्धांगिनी और न जाने कितने सम्बोधनों से होकर मातृत्व,ममता,स्नेह,निश्छलता और लालत्व के उच्च आदर्शों को स्थापित करते हुए एक सम्पूर्णता का बोध कराती है। किसी ने सत्य ही कहा है कि स्त्री की उन्नति या अवनति पर ही राष्ट्र का उत्थान निर्भर करता है। स्त्रियां तो उस पलाश के पौधों की तरह होती हैं जो सिर्फ अपनी डाल पर लगता है और उसी पर मुरझाकर धरती पर गिर जाता है अर्थात उसका पूर्ण समर्पण उस डाल के प्रति है जिसने उसको जीवन और स्नेह दिया ।
उच्च नैतिक आदर्शों की ढपोरशंखी बजाते इस पुरुषवादी समाज में क्या महिलाओ को वो सम्मानित स्थान मयस्सर हुआ,जिसको वो हकदार थी ?
इतिहास के पन्नो को उकेरे तो ईसा से ५०० साल पूर्व ,पाणिनि द्वारा पता चला है, नारी वेद अध्ययन भी करती थी तथा स्तोत्रों की रचना करती थी ;जो ’ब्रह्म वादिनी’ कही जाती थी।इनमें लोपामुद्रा,अपाला, घोषा, इन्द्राणी नाम प्रसिद्ध हैं।’पंतजलि’ में तो नारी के लिए ’शाक्तिकी’ शब्द का प्रयोग किया गया है; अर्थात ’भाला धारण करने वाली’।इससे प्रतीत होता है, कि नारियाँ सैन्य शिक्षाएँ भी लिया करती थी और पुरुषों की भांति अपनी जिम्मेदारी को बखूबी निभाती थी। चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में इस प्रकार की प्रशिक्षित महिलाओं की एक सुरक्षा टुकड़ी का उल्लेख किया गया है । इसी दौर में बाल विवाह और सती प्रथा के आगमन ने नारी के जीवन को नारकीय बना डाला। बहरहाल प्राचीन काल में वैदिक से मध्य काल के प्रारब्ध तक उत्तरोत्तर स्त्रियों की दशा में गिरावट आती रही।
मध्यकाल के मुहाने से मुगलों के पतन तक के दौर में राजनीतिक उठापठक के मध्य कुछेक अपवादों को छोड़ स्त्रियों की दशा में गिरावट आती गयी। यह दौर सती प्रथा का स्वर्णिम काल था। इसी दौर में  स्त्रियों के अगाध पण्डिता होने के दृष्टांत के स्वर्णिम उल्लेख हैं। रजिया ने सुल्तानियत की उस पुरुषवादी परम्परा को खंडित किया जो बेटियों के बदले बेटों की योग्यता का दम्भ भरती थी। इस दौर में स्त्री  के दिव्य गुण धीरे-धीरे उसके अवगुण बनने लगे, साम्राज्ञी से वह धीरे-धीरे आश्रिता बन गयी। जो स्त्रियां वैदिक युग में धर्म और समाज का प्राण थीं, उन्हें श्रुति का पाठ करने के अयोग्य घोषित किया गया।मुसलमानों में पर्दा प्रथा होने के कारण तथा मर्द के बगैर घर से बाहर न निकलने की जबरन प्रथा ने भारतीय समाज से मुस्लिम  नारी की शिक्षा लगभग समाप्त हो गई थी।ईसाईओ में ज्ञान प्राप्ति को लेकर कोई भेदभाव नहीं था।उस जमाने में उच्च शिक्षा पाने के लिए स्त्रियों को ’नन’(भिक्षुणी) का जीवन व्यतीत करना होता था,जबकि पुरुषों के लिए कोई शर्त नहीं होता था।
आधुनिक भारतीय इतिहास में जब-जब राष्ट्र की अखंडता और गरिमा को ब्रिटिशों ने बूटों के तले कुचलने का दुस्साहस किया तो इन्ही महिलाओ में अरुणा आसफ अली,सरोजनी नायडू,एनी बेसेंट ने अपने बुलंद इरादों और मजबूत हौसलों से बारम्बार मात देने का साहस दिखाया। 
२१वी सदी की परिस्थितियां व्यवहार में कुछ बदली हुयी सी जरूर प्रतीत होती है,लेकिन मृग-मरीचिका की भाँति। जो व्यवहार में दूर से ही सुधार का झूंठा आवरण दिखाती है। शहरी महिलाओं के इतर ग्रामीण दशा में मीलों का विभेद है। घरों की चहारदीवारी से निकल आज इन्ही महिलाओं में कल्पना चावला,सुनीता विलियम्स,संतोष यादव,प्रतिभा पाटिल इत्यादि ने आने वाली नस्लों के लिए नयी इबारत लिख दी तो दूसरी तरफ भ्रूण हत्या,दहेज़ हत्या,बलात्कार इत्यादि की शिकार हुयी मासूमों को पुरुषवादी समाज ने सरकारी योजनाओं में 'दामिनी' नाम से उपकृत कर दिया।छद्म सशक्तिकरण के बहाने दरसअल आज भी महिलाएं लाचार और बेचारी ही बनी हुई हैं।
मुहम्मद अली जिन्ना की उक्तियाँ आज के पुरुषवादी समाज को आईना दिखने हेतु उपयुक्त नजीर है कि,"कोई भी मुल्क यश के शिखर पर तब तक नहीं पहुँच सकता,जब तक उसकी महिलाएं कंधे से कंधा मिलाकर न चलें"। 
बहरहाल सरसरी तौर पर गौर करें तो आज देश की दशा और दिशा निर्धारण में आज महिलाएं पुरुषों की समकक्षी अवश्य बनी हुई हैं,लेकिन आनुपातिक दृष्टि से उनका औसत शायद बहुत अल्प है। ऐसे में महिलाओं की दशा में सुधारार्थ "महिला आरक्षण" वास्तव में एक नजीर साबित होगा। आरक्षण की बानगी देखे तो ७३रवे संविधान संशोधन से पंचायतों में महिलाओं को प्रधान/प्रमुख/अध्यक्ष पदों पर मिले एक तिहाई आरक्षण ने उपलों और कंडों के धुएं से निकाल कलम पकड़ने के काबिल अवश्य बनाया है। यद्द्यपि कि इसमें एक विरोधाभास भी है कि अधिकांशयतया स्थानों में महिलाएं नाममात्र की पदाधिकारी हैं जबकि वास्तविक नियंत्रण आज भी पुरुषों की जागीर बना हुआ है। मुख्य प्रश्न यह है कि क्या योजनाओ और पंचायत आरक्षण के बावजूद भी महिलाओं की दशा में सुधार आया? क्या महिला सशक्तिकरण की बातें बस एक कोरी बकवास बनकर रह गयी है ? क्या ग्रामीण महिलाओं की दशा में सुधार आया है? क्या पुरुषवादी समाज में महिलाओं को बराबरी का दर्जा प्राप्त हुआ है? क्या दलित और आदिवासी महिलाओ के रहन सहन में अंतर आया है ? क्या अल्पसंख्यक महिलाओं को धार्मिक ढकोसलों और कुरीतियों के इतर सामाजिक साम्यता प्राप्त हुयी है ?
प्रश्न तो बहुत से हैं लेकिन आज भी उत्तरविहीन है। 
लोकतान्त्रिक राष्ट्र का उत्तरदाईत्व है कि वह स्त्री-पुरुष,सवर्ण-दलित-अल्पसंख्यक के विभेद से मुक्त सबको एकसमान सुविधाएं मुहैया कराये। भारत में सर्वाधिक दुर्दशापूर्ण जीवन दलित महिलाओं का है। इनके शोषण की कहानी सदियों से बिना रुके अनवरत जारी है। शिक्षा के अभाव में ये महिलाएं समाज की मुख्य धारा से मीलों दूर जा चुकी हैं। अशिक्षित होने के चलते इस तबके में महिलाओं को कम उम्र में ही विवाह और माँ बनकर पारिवारिक जिम्मेदारी का निर्वहन करना पड़ता है। आर्थिक तंगी ने दलित लड़कियों को कम उम्र में रोजगार हेतु मेहनत-मजदूरी करके गुजर बसर करने पर बाध्य किया  है,जिससे शिक्षा अवरुद्ध होती है। अशिक्षा के कारण बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं से महरूम ये महिलाये नारकीय जीवन-यापन करती हैं। कर्मठता के चलते किसी भी आंदोलन में इनकी भागीदारी तो होती है लेकिन नेतृत्व की बागडोर कभी नही मिलती। दलितों में संपन्न तबके की महिलाओं द्वारा भी इन्हे हमेशा हेय दृष्टि से देखा जाता है। 
बात अगर आदिवासी तबके की महिलाओं की हो तो भारत, विश्व की सबसे अधिक जनजातीय महिलाओं वाला देश है। भारत में लगभग साढे़ पांच सौ जनजातियां हैं। जब हम सशक्तिकरण की बात करते हैं तो इसमें विचारकों,शासन एवं वृहत्तर समाज की भागीदारी होती है।जिन महिलाओं में आज हम सशक्तिकरण देख रहे हैं वो अधिकतर शहरी, साक्षर, मध्यमवर्गीय हैं,परन्तु लगभग ८० प्रतिशत महिलाएं ग्रामीण क्षेत्रों में रहती हैं। आदिवासी क्षेत्रों में महिलाओं के लिए रोजगार प्राप्ति के साधन उपलब्ध नही,शायद इसीलिए थोड़ी बहुत शिक्षित महिलाये कुछ पैसों के लिए मजदूरी पर निर्भर हैं। आदिवासी महिलाओं को आम महिलाओं की तरह शिक्षित करना आवश्यक है। मगर पलायन और अन्य वजहों से बहुत सारी महिलाएं शिक्षित नहीं हो पाती हैं।कम पढ़े-लिखे होने के बावजूद आदिवासियों में लड़कियों को लेकर ग्लानि करने की परंपरा नहीं है।आदिवासियों में भ्रूण हत्या का चलन नहीं के बराबर देखा गया है। मध्य प्रदेश के झाबुआ में भीलों में होली के त्यौहार में रंगो के माध्यम से लड़कियों को वर चुनने की आजादी की बात हो या गोंड गधेडू में बांस के छोर पर गुड-चना बाध वर चुनने की आजादी निस्संदेह लड़कियों की महत्ता दर्शाती है लेकिन दूसरी तरफ पातालकोट,होशंगाबाद में आदिवासियों को आजादी के ६७ साल बाद बुनियादी सुविधाएं से महरूम होकर समाज की मुख्य धारा से कटे हैं। आदिवासी महिलाओं में सुधार हेतु प्रशिक्षण,लघुकुटीर उद्योग,हस्तशिल्प के साथ ही बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएँ उपलबध करना आवश्यक है। 
मुस्लिम महिलाओं के सन्दर्भ में,वास्तव में इस समाज की महिलाओं को अन्य समुदायों के साथ-साथ स्वधर्मीं पुरुषों द्वारा भी भेदभाव झेलना पड़ता है। इस तरह वो दोहरे भेदभाव की शिकार हैं। मुस्लिम समाज में महिलाओं को निचले दर्जे पर रखने के साथ उन्हें अधिकार भी कम दिए गए हैं। राजेंद्र सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक मुस्लिम महिलाओं की दशा,दलित महिलाओं से भी बदतर है। 
२१वी सदी के प्रारब्ध में जब भारत स्वयं को एक महाशक्ति के रूप में विश्वपटल पर स्थापित करने हेतु प्रयासरत है,वैसे में महिलाओं का उचित प्रतिनिधित्व ही इस सपने को साकार कर सकता है। नेतृत्वकर्ता की भूमिका की बागडोर महिलाओं के हाथ में देने से निस्संदेह चंडीगढ़ और हरियाणा का लिंगानुपात (८१८,८७७),केरल और पुदुचेरी (१०८४,१०३६) का अनुसरण करता दिखाई देगा और साक्षरता की दृष्टि से भी पुरुष साक्षरता(८०.९%) के समतुल्य महिला साक्षरता(६४.६%) होगी। 
बिगहैम यंग की कथनी इस लेख की सार्थकता का सार होगी कि,"यदि आप एक आदमी को शिक्षित करते हैं तो आप मात्र उसी एक आदमी को शिक्षित करते है,लेकिन यदि आप एक औरत को शिक्षित करते है तो आप एक पीढ़ी को शिक्षित करते हैं"। 
थॉम्सन रॉयटर्स फ़ाउंडेशन के सर्वेक्षण में शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार और हिंसा जैसे कई विषयों पर महिलाओं की स्थिति की तुलना ली गई। १९ विकसित और उभरते हुए देशों में भारत की स्थिति को सउदी अरब जैसे देश से भी बुरी बताया गया है जहाँ महिलाओं को गाड़ी चलाने और मत डालने जैसे बुनियादी अधिकार हासिल नहीं हैं। भारत के 19 देशों की सूची में सबसे अंतिम पायदान पर रहने के लिए कम उम्र में विवाह, दहेज, घरेलू हिंसा और कण्या भ्रूण हत्या जैसे कारणों को गिनाया गया है। 
महिला सशक्तिकरण की दिशा में 2010 में पारित हुए महिला आरक्षण विधेयक के प्रभावी होने से क्रांतिकारी परिणाम आने की उम्मीद थी। लेकिन दुर्भाग्य,यह महत्वपूर्ण बिल ने लोकसभा और राज्यसभा की दहलीज पर दम तोड़ दिया।इस बिल के तहत संसद और राज्य विधान सभाओं में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने का प्रस्ताव था। विश्व के अन्य देशों में महिलाओं को आरक्षण प्राप्त है। स्वीडन में ४०%,नॉर्वे में ३८%,फ़िनलैंड और डेनमार्क में ३४-३४%,अर्जेंटीना में ३०% और आइसलैंड में २५% स्थान महिलाओं हेतु आरक्षित हैं। यहाँ तक की हमसे कम समृद्ध इरिट्रिया,तंजानिया,बांग्लादेश और उगांडा ने भी महिलाओ को उनके अधिकार दिए हैं। 
राजनीतिक महत्वाकांक्षा और पुरुषवादी सोच की भेंट चढ़े महिला आरक्षण बिल के प्रभाव में आने से शायद महिलाओं की काबिलियत का लोहा सबको मानना होता। जेम्स थरबेर की उक्ति कि,"महिलाएं पुरुषों से ज्यादा बुद्धिमान होती हैं क्योंकि वो जानती काम है और समझती ज्यादा हैं" इस पुरुषवादी सोच के गाल पर तमाचा होती जबकि  यह बिल संसद की सीढ़ियों से कूड़े के ढेर की तरफ न फेंक उसे इज्जत और सम्मान से स्वीकार्य किया गया होता। 


बाकी जो है सो हइये है।


【चंचल】



Wednesday, August 31, 2016

क्या २५ वर्षों में कमंडल से मुक्त हो गया है मंडल?

वर्ण व्यवस्था के दौर में उच्च से निम्न तक का कर्म पाखण्ड और स्वार्थपूर्ति हेतु निर्धारित था।दौर बदला,दायरा बदला, सोच बदली,अगर नही कुछ बदला तो वो थी जाति व्यवस्था।1990 का दौर था,समय करवट ले रहा था,ऐसे में मंडल ने कमंडल को पटखनी दी और समाज के शोषित,अधिकारविहीन और आधी से भी अधिक आबादी को पिछड़ी जाति के रूप में चिन्हित कर 27% का आरक्षण दिया गया।27% के उस अपर्याप्त लेकिन अतिआवश्यक हक़ ने मजलूम,वंचित एवं गरीब पिछड़ों को एक आवाज तो अवश्य ही दी। इस हक़ ने पहले से एकाधिकार प्राप्त अभिजात्य तबके की पेशानी पर बल ला दिया।लेकिन प्रश्न यह है कि क्या उस 27% के अधिकार ने हमारे जिल्लत और जलालत भरे इतिहास को गौरवशाली बना दिया?क्या वे अधिकार हमे पूर्णतः मिले,जिनके हम वाजिब हक़दार थे? शायद नही।2008 में पहली बार पिछड़ों को उच्च शिक्षा में आरक्षण मिला।बमुश्किल 25 वर्षों का अपूर्ण और अपर्याप्त हक़ अभिजात्य वर्ग के सीने में शूल की तरह क्यों चुभ रहा है।उस अभिजात्य वर्ग के जो 5000 वर्षों की शोषण परम्परा का नायक है।वह अभिजात्य वर्ग जो आज भी अघोषित 50% आरक्षण का हक़दार है।जिसने शोषण की न भूलने वाली ऐतिहासिक स्मृतियों से समाज के 80% तबके को सदैव जिल्लत की जिंदगी जीने पर बाध्य किया।
खैर ऐतिहासिकता से इतर मुख्य मुद्दे पर आता हूँ।मंडल अधिकारों की पच्चीसवी वर्षगांठ के उपलक्ष्य में दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में यूनाइटेड ओबीसी फोरम के कुछ जुझारुओं में हक़ और हुकूक की लड़ाई को नई दिशा देने हेतु एक विचार गोष्ठी का आयोजन किया।मुख्य वक्ता में शरद यादव और अंबुमणि रामदास जैसे बौद्धिक चिंतको को आमंत्रित किया गया। कार्यक्रम के प्रारब्ध में ही वामपंथियों ने हाथापाई का शिकार रामदास को बनाया।उन्ही रामदास को जिन्होंने एम्स में पिछड़ों और दलितों के अधिकारों को दिलाने में एक लंबा संघर्ष किया। दरअसल हाथापाई कर वामपंथी इस आयोजन को असफल करने का कुत्सित प्रयास कर रहे थे।यहाँ एक बात स्पष्ट करता चलूँ कि भारतीय वामपंथ दरअसल ब्राह्मणवाद ही है।यहाँ दिखावट की चादर ओढ़े लोग मार्क्स की आत्मा का प्रदर्शन करते हैं
और फिर जेएनयू तो इनका गढ़ ही है।वही जेएनयू जहाँ कुछ माह पूर्व सत्ताधारी दल के एक नेता कंडोम की गिनती कर रहे थे।उसी जेएनयू में सामाजिक न्याय का एक नया इतिहास लिखने के प्रयास में मंडल आयोग की पच्चीसी मनाई जा रही थी।सफल आयोजन में हुंकार थी,ललकार थी और अधिकारों की मांग थी।
लेकिन पुनश्च प्रश्न उठता है कि वे तथाकथित पिछड़े नेता और पिछड़ी राजनीति वाले राज्य कहाँ हैं,जो ऐसे आयोजन में अपनी परछाई भी दिखाने का साहस नही उठा पा रहे।संभव था कि मंडल के इस महान कृत्य को जनेश्वर मिश्र और ललित नारायण मिश्र से अधिक आँका जाता।लेकिन साहब तथाकथित सोशल इंजीनयरिंग के नाम पर आज देश के तथाकथित पिछड़े नेता शायद अपने वजूद और बुनियाद को भूल गए है।वे भूल गए हैं कि आज जिस सत्ता का नशा उन्हें मदहोश कर रहा है,वास्तव में उसमें मंडल की चाशनी है।मंडल कमीशन के अधिकार तो अधूरे हैं।आइये बाहर मैदान में,क्योंकि आज मंडल कमीशन ने ही आपको 7 आरसीआर या 5 कालिदास मार्ग या 1 अणे मार्ग पर बैठाया है।हक़ और हुकूक की लड़ाई को इन्साफ देने का वक़्त है।ऐसे में युवाओं की जिम्मेदारी बढ़ गयी है।आगे आइये और संघर्ष कीजिये।
अन्ततः रमाशंकर विद्रोही की कुछ पंक्तियों से इस आलेख को विराम दूंगा कि अगर जमीन पर भगवान जम सकता है तो क्या आसमान में धान नही जम सकता। तो एक बार संगठित होकर अधिकारों के इस संघर्ष को नई दिशा दीजिये,क्योंकि अगला इतिहास हमे ही लिखना है।




बाकी जो है सो हइये है।

【चंचल】